जयपुर। राजस्थान में बजरी खनन एक बार फिर सियासी और सामाजिक विवाद का विषय बन गया है। प्रदेश में हर साल करीब 700 लाख टन बजरी की जरूरत होती है, लेकिन सरकारी कंपनी मात्र 150 लाख टन ही उपलब्ध करवा पा रही है। इस आपूर्ति अंतर के चलते अवैध खनन माफिया की चांदी हो रही है और आम जनता 20% तक महंगी बजरी खरीदने को मजबूर है।
सरकारी कंपनी की धीमी प्रक्रिया
बजरी खनन की अनुमति में नियमों की जटिलता
अवैध खनन पर ढीली निगरानी और कार्रवाई
बजरी माफिया का वर्चस्व और पुलिस पर हमले
बीते कुछ दिनों में चित्तौड़गढ़, झालावाड़ और कोटा बॉर्डर पर अवैध बजरी खनन को लेकर कई बार पुलिस और माफिया आमने-सामने आए। कुछ मामलों में हमले और पत्थरबाजी भी हुई। हालात इतने बिगड़े कि कई बार पुलिस को पीछे हटना पड़ा।
विशेषज्ञों के अनुसार यदि राज्य खनन निगम या सरकार द्वारा अधिकृत कंपनियां बजरी खनन की प्रक्रिया तेज करतीं, तो उपभोक्ताओं को कम से कम 15-20% सस्ती बजरी मिल सकती थी। साथ ही माफिया की भूमिका भी सीमित हो सकती थी।
विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को घेर रहा है। उनका कहना है कि सरकार माफिया को बढ़ावा दे रही है और जनता पर बोझ डाल रही है। वहीं, सत्ता पक्ष का तर्क है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों और पर्यावरणीय मानकों के तहत बजरी खनन की गति सीमित है।
खनन विशेषज्ञ विजय सिंह राठौड़ कहते हैं, “जब तक सरकारी खनन एजेंसियां पारदर्शी और तेज़ नहीं होंगी, अवैध खनन को रोकना मुश्किल है।”
भवन निर्माण संघ अध्यक्ष महेश टांक ने बताया, “बजरी की बढ़ती कीमतों का सीधा असर आम जनता और छोटे ठेकेदारों पर पड़ता है। सरकार को बजरी खनन की प्रक्रिया में सुधार करना होगा।”
सरकारी कंपनी की खनन रफ्तार बढ़ाई जाए
अनुमति प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी किया जाए
अवैध खनन पर सख्त कार्रवाई और लगातार निगरानी
छोटे स्तर पर लाइसेंस सुविधा लागू की जाए
बजरी वितरण में डिजिटल ट्रैकिंग शुरू हो
राजस्थान में बजरी संकट सिर्फ खनन का नहीं, बल्कि नीतिगत अक्षमता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का भी परिणाम है। अगर सरकारी मशीनरी समय रहते सक्रिय हो जाए तो न केवल जनता को राहत मिलेगी, बल्कि माफिया तंत्र को भी तोड़ा जा सकता है।
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